परमपूज्या दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा जी के साधु स्वभाव होने के जितने भी निहितार्थ गुण है उन सबको इन्होने चरितार्थ किया है इसके परिप्रेक्ष्य में मैं यही कहना चाहूंगी कि साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय, सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय। [ कबीरदास जी ] आज के इस युग में भी मानवतावादी विशेषता वालों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है. जो सार्थक तत्वों को समाहित कर के निरर्थक तत्वों को दूर कर देता है इस प्रकार साधु भी जिसको सांसारिक पदार्थों से कोई आसक्ति नहीं होती और वे सिर्फ जरूरी चीजों का सिमित मात्रा में उपयोग करतें है । क्रोध वैभव माया लोभ आदि का परित्याग करके अपनी इच्छाओं को सिमित रखते हुए स्वयं अपरमित दुःख सहकर दूसरों को सुख देते हैं इसलिए वे अप्रिदिम पुजय्नीय और वंदनीय होते है ।
परमपूज्या दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा जी के कर कमलों से यह सम्मान पाकर आज मैं अपने आपको अत्यंत गौरान्वित महसूश कर रही हूँ क्योंकि यह सम्मान मुझे सामाजिक कार्यों के लिए है तथैव बढ़ती जिम्मेद्दारियों को आत्म सात करते हुए मेरी पुरजोर कोशिश होगी कि मैं इनके अनुरूप खरी उतरूं।
वात्सल्य ग्राम एक लघु परिचय
वृन्दावन शहर के सामीप्य में वात्सल्य ग्राम वो स्थान है जिसके मुख्यद्वार के निकट यशोदा और बालकृष्ण की एक प्रतिमा वात्सल्य रस को साकार रूप प्रदान करती है। वास्तव में इस अनूठे प्रकल्प के पीछे की सोच अनाथालय की व्यावसायिकता और भावहीनता के स्थान पर समाज के समक्ष एक ऐसा मॉडल प्रस्तुत करने की अभिलाषा है जो भारत की परिवार की परम्परा को सहेज कर संस्कारित बालक-बालिकाओं का निर्माण करे न कि उनमें हीन भावना का भाव व्याप्त कर उन्हें अपनी परम्परा और संस्कृति छोड़ने पर विवश करे.
हमारे समाज में दीदी माँ के नाम से ख्याति प्राप्त साध्वी ऋतम्भरा जी ने इस परिसर में ही भरे-पूरे परिवारों की कल्पना साकार की है। एक अधेड़ या बुजुर्ग महिला नानी कहलाती हैं, एक युवती उसी परिवार का अंग होती है जिसे मौसी कहा जाता है और उसमें दो शिशु होते हैं। यह परिवार इकाई परिसर में रहकर भी पूरी तरह स्वायत्त होती है। मौसी और नानी अपना घर छोड़कर पूरा समय इस प्रकल्प को देती हैं और वात्सल्य ग्राम का यह परिवार ही उनका परिवार होता है। इस परिकल्पना और अतुलनीय प्रयाश के समक्ष हम नतमस्तक है ।
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