Tuesday, 26 May 2015

ओल्ड एड्ज होम यानी वृद्ध आश्रम - जरूरत या मजबूरी


हमारे माता-पिता दादा-दादी नाना-नानी सरीखे अनेक संबंध हमारी सामाजिक व्यवस्था के स्तंभ हैं, तथा इनका सानिध्य एक तरह से कवच के तरह है| ताउम्र अपने बच्चो पर सर्वस्व न्यौछावर करने वाले को उसके ही अंतिम पड़ाव में उन हाथों के बजाय वृद्ध आश्रम की जरूरत आन पड़ती है।

इसी तत्वाधान में सांवरी वोमेन एम्पावरमेंट के फाउंडर मेम्बर तथा समाज सेविका श्रीमती सीमा गोयल के साथ श्रीमती नीतू जैन सिंघल, रेणू अग्रवाल, इति गुप्ता, रानी गोयल, पूनम गुप्ता, मंजू सिंगल, कविता गर्ग ,सरिता गुप्ता तथा सविता गुप्ता और सांवरी वोमेन प्रतिनिधिमंडल ने कंझावला स्थित वृद्धआश्रम के साथ कुछ समय साझा करने का प्रयाश किया है और निमित्त कारणों पर शोध तथा दैनिक उपयोग की वस्तुओं का वितरण आदि| क्योंकि ताउम्र हमारे बुजुर्गों ने हर ज़रूरत का ध्यान रखा हैं, जबकि हमें इसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है, लेकिन जब उनको उसी स्नेह की आवश्यकता होती है तो हमारे हाथ पीछे हट जाते हैं। कहावत है कि दो माता-पिता मिलकर दस बच्चों को भी पाल सकते हैं, लेकिन दस बच्चे मिलकर भी दो माता-पिता को नहीं पाल सकते।आज के समय में उच्च तबके वाले परिवार के पुरुष अपने बुजुर्गों को अपने तथाकथित समृद्ध मित्रों से मिलवाने में सकोंच करते है और मध्यवर्गीय उच्च वर्गीय बनने के लालच में कंक्रीट जंगलों में हम दो हमारे दो के सपने को साकार करते जा रहे है| ध्यान रहे !!! जहाँ पर माता पिता देव तुल्य है, इस तथ्य को हमें अपने सामाजिक, सांस्कृतिक और खुद के लिए भी गूढ़ चिंतन के उपरांत आत्मसात करने की जरूरत है ।

 सांवरी सदस्यों का यह प्रयाश है और विचार है कि समाज के स्तंभ यानि बुजुर्गों के देख रेख के लिए अगर हर परिवार अपने-अपने बुजुर्गों का ख्याल सही तरीके से करता तो शायद उंन्हे वृद्ध आश्रम में जाने की जरूरत नहीं होती। इस सोच के तहत सांवरी वूमेंस ने कंझावला स्थित वृद्ध आश्रम [त्रिवेणी देवी चेरिटेबल सोसायटी ] में दिनांक २६ मई २०१५ को वात्सल्य तथा स्नेह के लालायित लोगो से पारिस्थितिक विषयों पर विचार विमर्श किया तथा मूल कारणों पर उनके अनुभवी विचारों को कलमबद्ध किया ।
























Tuesday, 19 May 2015

A story of every girl & women

A short film showcasing harassment on women. This short film reflects pain & agony of all the women . A compilation of stories of pain where every women or girl can relate to.



Lifelong Learning and Equality of Opportunities for All

Education is a powerful driver of development and is one of the strongest instruments for reducing poverty. But for many, it isn’t as simple as just going to school. Today, 250 million children don’t know how to read even though many have been to school. To prosper in a rapidly changing world, all children need more than basic literacy and numeracy. They need to be creative, critical thinkers and problem-solvers. We are the first generation in human history to try to end extreme poverty. Let’s begin in school. 



Tuesday, 12 May 2015

सफाई सामाजिक दायित्व होना चाहिए।

गांधी जयंती के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने अपनी महत्‍वाकांक्षी योजना ‘स्‍वच्‍छ भारत मिशन’ की नींव डाली थी जो दिन प्रति दिन एक जनांदोलन के रूप में हमारे सामने आ रहा है यह एक बहुत बड़ी चुनौती है हम सभी के लिए देश, प्रदेश, जिला, ब्लॉक तथा ग्राम स्तर पर हम सबका यह नैतिक दायित्व है कि देश को गंदगी से मुक्त कराएं और इसके लिए समाज के  हर वर्ग  को अपनी क्षमता अनुसार बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने की नितांत आवस्यक है । 

एक समाज सेविका होने के साथ साथ मैं एक गृहिणी भी हूँ और मेरा मानना है कि इसकी सुरुवात घर से ही होनी चहिये क्योंकी परिवार ही समाज की प्राथमिक कड़ी है ।  अगर हम अपने बच्चों को बचपन से ही इसके लिए जागरूक करें तो मुहीम आसान हो जायेगी।  हमारे प्रधानमंत्री ने मुहीम सुरु करते समय जो कहा था  उसको हमें आत्मसात करने की जरूरत है। 
  •  सफाई सामाजिक दायित्व होना चाहिए।
  •  सफाई सवा सौ करोड़ देशवासियों का काम है।
  • आप सभी जानते है विदेशों में सफाई का रहस्य वहां की जनता के अनुशासन का परिणाम है।
  • अगर हम लोग भी खुद को अनुशासित रखकर स्वच्छता के मामले में दुनिया के प्रमुख देशों में भारत को शामिल करा सकते हैं।
  • आज भी देश की 60 फीसदी से अधिक आबादी खुले में शौच करने को विवश है। मां-बहनों के शौच के लिए भी उपयुक्त साधन उपलब्ध नहीं हैं। स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय नहीं हैं। हमें मां बहनों के लिए शौचालय न उपलब्ध करा पाने का कलंक मिटाना है।
  • गंदगी के कारण होने वाली बीमारियों से भारत में लोगों की रोजी रोटी छिन जाती है और देश में प्रत्येक नागरिक को औसतन 6500 रुपये का अतिरिक्त नुकसान उठाना पड़ता है। अगर इस औसत से अमीरों की आबादी निकाल दी जाए तो गरीबों के नुकसान का यह औसत 12000 रुपए पहुंच जाएगा।